अनुसंधान की बेहतरी के लिए नीतिगत सुधार जरूरी
किसी विषय वस्तु के ज्ञान की खोज में उसकी गहराई में जाना,विभिन्न आयामों से समस्या समाधान के उपाय को ढूंढना,बड़ी से बड़ी चुनौती को सुलझाने के लिए चुटकी में उपायों को ढूंढ लेना तथा अन्य दूसरे विषय में महारत पाना सृजनात्मक शक्तियों का अभूतपूर्व योगदान होता है। देखा गया है कि जिस देश के वैज्ञानिकों को अपने सृजनात्मकता को विकसित करने का उचित वातावरण प्राप्त होता है , उनके अनुसंधान की गुणवत्ता साधारण वैज्ञानिकों के योगदान से कई गुना सर्वश्रेष्ठ होती है। नोबेल पुरस्कार प्राप्त तमाम वैज्ञानिकों की कार्यशैली को देखने से सृजनात्मक शक्तियों के महत्व को
समझा जा सकता है। मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के एक अध्यन के अनुसार , नोबेल पुरस्कार जीतने वाले वैज्ञानिक औसत अन्य वैज्ञानिको की तुलना में 2.85 गुना अधिक कलात्मक या सृजनात्मक होतें हैं। साधारणतया यह देखा गया है कि एक चित्रकार, फोटोग्राफर, अभिनेता, कलाकार, संगीतकार, कवि, नर्तकी या शिल्पकार जब किसी विषय - वस्तु को अपने हाथ में लेता है तो उसकी गहराई में चला जातेा है। यही गुण उसे आम लोगों से अलग करता है। साबित हो चुका है कि एक कलात्मक या सृजनात्मक वैज्ञानिक की कार्य शैली भिन्न होती है। यह विशिष्टता उसे सिर्फ पोषित ही नहीं करती है बल्कि लक्ष्य प्राप्ति में मदद करती है।
कलात्मकता और रचनात्मकता एक सिक्के के दो पहलू है। सृजनात्मक व्यक्ति बहुत ही समर्पित स्वभाव के होते हैं। वे देर - सबेर किसी भी बड़ी चुनौती का समाधान निकालने मे सफल होते हैं। उन्हें कोइ भी चुनौती नहीं दे सकता है कि वे अपने विशेषज्ञता के क्षेत्र के अलावा अन्य किसी विषय को उतनी प्रबलता के साथ आत्मसात नहीं कर पायेंगें। हर किसी एक नए कार्य को संपादित करने में उन्हें कोइ कठिनाई नही होती है , वह अपने विषय से अलग हट कर भी नए अविष्कार करने में आगे रहते हैं।
देश में लोगों को यह एहसास हो रहा है कि वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी विकास के क्षेत्र में सबसे अधिक प्रशिक्षित मानव शक्ति भारत में है। इतने बड़े खजाने को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेठ सिद्ध करने के लिए कहीं किसी प्रकार हमसे कमी हो रही है। वैज्ञानिकों को भरपूर असर नहीं मिल पा रहा है। अब प्रश्न यह है कि हमारे अत्यंत प्रतिभावान वैज्ञानिक क्या अपने सृजनात्मक गुणों को अपने व्यावसायिक कार्य में प्रयोग कर पा रहे हैं ? यह देखना होगा कि कहीं इस दिशा में कोई नीतिगत कमी तो मौजूद नहीं है। क्या हमारे प्रतिभावान वैज्ञानिक उचित वातावरण में अपने कार्य कर पा रहे हैं? विचार करने पर लगता है कि हमारी वर्तमान व्यवस्था में वैज्ञानिकों को अपने सृजनात्मकता को बढ़ावा देने वाली पर्याप्त सुविधाएं देने की परम आवश्यकता है।
केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद के तहत वैज्ञानिक अनुसंधान एवं प्रचार प्रसार के लिए कार्यरत राष्ट्रीय विज्ञान संचार तथा सूचना स्रोत संस्थान ने विज्ञान पत्रकारिता के 200 वर्ष पूरे किए हैं। इस अवसर पर राष्ट्रीय विज्ञान संचार तथा सूचना स्रोत संस्थान द्वारा 18वीं भारतीय विज्ञान संचार कांग्रेस का आयोजन किया जा रहा है। दो दिवसीय इस कांग्रेस का आयोजन 20 से 21 दिसंबर को दिल्ली में आयोजित किया जाएगा। कार्यक्रम के संयोजक डॉक्टर मनोज कुमार पटेरिया के अनुसार हिंदी और अंग्रेजी में विज्ञान पर जनसंचार के दिशा में काम करने वाले प्रतिभागियों से तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा कराई जाएगी। विचार विमर्श के विषय में आजादी के पहले और बाद में विज्ञान पत्रकारिता की स्थिति, भारतीय भाषाओं की भूमिका, आम आदमी के लिए विज्ञान, वर्तमान वैज्ञानिक उपलब्धियों के संचार में पत्रकारिता एवं नए अविष्कारों पर विज्ञान लेखन की चुनौतियां एवं समाधान प्रमुख है।
आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रतिभा पलायन की हालात गंभीर है। वर्ष 2000 में 53 हजार भारतीय विद्यार्थी विदेशों में अध्ययन के लिए गए। वर्ष 2010 में 1,90,000 विद्यार्थियों ने विदेशी विश्वविद्यालयों में दाखिला लिया। इसका मतलब हुआ एक दशक में कुल 256% इजाफा हुआ। यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि जो विदेश में पढ़ाई के लिए जाते हैं, उनमें से बहुत कम लोग अपने देश आकर नौकरी करना चाहते हैं। देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर बजट में वृद्धि की गई है और सकल घरेलू खर्च का 0.6 प्रतिशत से बढ़ाकर- 0.7 प्रतिशत कर दिया गया है। यह चीन और जापान जैसे देशों द्वारा किए जा रहे खर्च की तुलना में बहुत कम है। नए अविष्कारों की गति 27,000 प्रतिवर्ष वहां चीन में 7 गुना अधिक और अमेरिका में 17 गुना अधिक है। हालांकि, 2009 में कुल 26,000 शोध पत्र प्रकाशित हुए थे। वह संख्या बढ़कर 1,00,000 हो गई है यानी 14% की बढ़ोतरी हुई है। इसी प्रकार वर्ष 2001- 2002 में 40 प्रतिशत पेटेंट्स कराए गए जो वर्ष 20015-2016 के दौरान घटकर 15% पर गए।
अगर हम भारतीय वैज्ञानिकों की सुविधा एवं वेतनमान की तुलना करें तो भारतीय वैज्ञानिकों को अमेरिकी वैज्ञानिकों की तुलना में तीन गुना कम सैलरी प्राप्त होता है। देश में लैब से लैंड अर्थात प्रयोगशाला से खेत तक तकनीकी हस्तांतरण की गति काफी कम है। विशेषज्ञों के अनुसार ग्रामीण एवं कृषि विकास से संबंधित 30% तकनीक इस समय से किसानों तक पहुंच पा रहा है। भारत एक बहुभाषी देश है। विश्व के कुल बोले जाने वाली 7,097 भाषाओं में 455 भाषण अकेले भारत में बोली जाती है। भारत सरकार के नियमों के अनुसार समूचे देश में सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी कार्यालयी भाषा है, जिनका प्रयोग तकनीकी संचार में किया जाता है। हमारे देश में राज्य सरकारें हैं, जो अपना कामकाज स्थानीय या राज्य की भाषा में करती हैं