पशु कल्याण के लिए अब अंतराष्ट्रीय पटल पर "वन हेल्थ कांसेप्ट"

पशु कल्याण के लिए अब अंतराष्ट्रीय पटल पर "वन हेल्थ कांसेप्ट"


पृथ्वी पर हरित  कवच  की कमी एवं ग्रीन हाउस  गैस में होने वाले बढ़ोतरी से उत्पन्न समस्या- “जलवायु परिवर्तन” का संबंध सिर्फ खाद्यान्न उत्पादन, लोगों के रहन- सहन, खान-पान  आदि  रोजमर्रा की जरूरतोंतक ही नहीं सिमित है बल्कि  इसका भारी असर पशु- पक्षियों और धरती के सभी  जीव - जंतुओं पड़ा है . लोगों की जरूरते  और भोजन की आदतों में निरंतर  परिवर्तन हो रहा है. खाद्यान्न उत्पादन और  उसकी  उपलब्धता की होड़  ने तो इंसान को अंधाधुंध  दौड़ जीतने पर मजबूर कर दिया है.


इससे  मनुष्य एवं उसका पशुओं से संबंध अब संघर्ष  मैं बदल गया है. पशुओं पर अपराध बढ़ता जा रहा है. नतीजन पशु जन्य खाद्य  पदार्थों  की उपलब्धता और उसकी गुणवत्ता गिरती जा रही है जिसका सीधा असर हमारे रहन-सहन , खान-पान  एवं  स्वास्थ्य पर पड रहा है. इस विषय पर  आज नए -नए शोध हो रहें हैं. पशुओं के साथ हो रहा व्यवहार,  उनका रखर-खाव, अनुसन्धान , शिक्षण –प्रशिक्षण  एवं जनजागृति  की भारतीय  दशा एवं दिशादुनिया भर में एक चुनौती बनी हुई है . मौजूदा चुनौतियों पर  भावी रणनीति तैयार तैयार किया जा रहा है . विश्व पटल पर जलवायु परवर्तन से जूझने के लिए “वन हेल्थ कांसेप्ट” अर्थात  “एक स्वास्थ सिद्धांत”(सभी का साथ-सभी का स्वास्थ ) को प्रचारित करने का अभियान चलाया जा रहा है .


ताजे अनुसंधान से यह सिद्ध हो चुका है कि यदि जब पशु तनावग्रस्त होते हैं तोमनुष्य के तरह  उनके शरीर के अंदर कई प्रकार के हानिकारक हार्मोन पैदा होते हैजैसे- एड्रेनालाईन और कोर्टिसोल जो श्वास तथा ह्रदय की गति बढ़ता है एवं थकान पैदा कर शरीर की प्रतिरोध क्षमता को घटा देता है . इससे पशु के  शारीर प्रक्रिया पर प्रतिकूल असर पड़ता है. ऐसे  में जब हम  पशु जन्य खाद्य सामग्रियों का  इस्तेमाल करते हैं तो उसका सीधा असर  हमारे स्वास्थ्य पर भी  पड़ता है. नार्वे के एक वैज्ञानिक डाएली गजेरलाग एनगर के अनुसार तनाव से प्रोटीन , विटामिन  और खनिज तत्वों की  संरचना बदल जाता  है. जिससे  मांस की गुणवत्ता पर असर पड़ता है.आज  पशुओं के ऊपर प्रयोग किए जाने वाले हानिकारक रसायनों, हार्मोनों, वैक्सीन,एंटीबायोटिक्स आदि का खुलकर प्रयोग  किया जाता है जबकि खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2011 के अनुसार यह कार्य दंडनीय अपराध है.


हमारे देश में ऐसी अनियमितताओं को करने वालों के खिलाफ कदम उठाने के लिए नियम - कानून की कोइ कमी नहीं है किन्तु जनजागृति के अभाव में भोजन और स्वास्थ्य से संबंधित अपराध चलते रहते हैं. वर्ष 2014 ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया ने ऑक्सीटॉसिन नामांक हार्मोन को खुलेआम बिक्री से रोक लगाने का अध्यादेश जारी किया किंतु आज भी देश के कई प्रांतों में संचालित पशुपालक इसका पशुओं से दूध उतारने में प्रयोग कर रहे हैं. पिछले दशकों में अंधाधुंध ऑक्सीटॉसिन इंजेक्शन लगाकर दूध उतारने के हानिकारक प्रभाव पर अनेक अनुसंधान किए गए हैं जिसमें स्पष्ट बताया गया है इंजेक्शन लगाए पशु का दूध पीने योग्य नहीं होता है. दूध के सभी घटक बदल जातें है . साथ ही साथ लगातार इंजेक्शन लगाने से  पशुओं की प्रजनन क्षमता चली जाती है. देखा गया है कि उनमें प्रोलेप्स( बच्चेदानी बाहर आने की समस्या) पैदा हो जाती है और पशु मुश्किल से दो या तीन ब्यांत में वधशाला जाने के लिए मजबूर हो जाता है क्योंकि उसकी प्रजनन क्षमता चली जाती है.


आज पशु कल्याण का प्रमुख मुद्दा क्या है, क्या पशु कल्याण सिर्फ दया करुणा या  ममता तक सीमित ही गयी  है . जी नहीं ,  दया और करुणा कि  परिभाषाएं बदल गई है. यह एक वैज्ञानिक सत्य साबित हो चुका है .पशुओं के प्रति दया और करुणा का भारतीय दर्शन  अब पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन से जुड़ गया है. संसार भर  में पशु कल्याण अब पशु चिकित्सा विज्ञान का एक महत्वपूर्ण विषय हो चुका है. यूरोपियन देशों में इसकी व्यवस्थित पढ़ाई और अनुसंधान कार्य किया जा रहा है ताकि इंसानों की दुनिया सुखी और संपन्न रह सकें. इसलिए पूरे दुनिया में खासकर विकसित देशों में "वन हेल्थ कांसेप्ट"  अर्थात  "एक स्वास्थ्य सिद्धांत" ( पशु स्वास्थ्य - पर्यावरण स्वास्थ्य  और  मानव स्वास्थ्य )  पर कार्यक्रम चलाये जा रहें है . दरअसल,  विश्व स्वास्थ्य संगठन ,विश्व कृषि खाद्य संगठन  एवं  विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन मैं मिलकर  इस अभियान को आरंभ किया है ताकि प्रकृति का संचालन यथावत चलता रहे.


सवाल है कि जलवायु परिवर्तन में पशु कल्याण की क्या भूमिका  है ? बात साफ़ है कि  प्रकृति की “खाद्य श्रृंखला”- “फूड चेन” विखंडित हो रही है याने संचालन तंत्र  विखर रहा है . विगत वर्षों में उत्पादन  स्रोत और उत्पाद अत्यंत प्रभावित हुए हैं. फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया अर्थात भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण के अनुसार बाजार में बिकने वाले दूध और दूध से बने पदार्थ  तकरीबन 68.7  प्रतिशत  मिलावटी है. चूंकि सारे बीमारियों की जड़  असुरक्षित भोजन एवं अनियंत्रण दिनचर्या है . विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर मैं कैंसर से मरने वाले 98 लाख लोगों में से 8.17  प्रतिशत भारतीय हैं.  पश्चिमी देशों की भाति आज भारत  फैक्ट्री फार्मिंग की तरफ तेजी से बढ़ रहा है. पशु कल्याण के सुनिश्चित  मानकों  के अनुसार से रेंज फार्मिंग( तनाव रहित- खुले वातावरण) तकनीक से पशुओं का पालन -पोषण होना चाहिए ताकि उनका उत्पादन प्राकृतिक तौर-तरीके से हो . किंतु ऐसा न हो पाने की वजह से भारत में भी पशुओं से मिलने वाले उत्पाद अपनी गुणवत्ता से दूर होते जा रहें है. हमारे देश में  इसका सबसे बड़ा शिकार  देशी गोवंशीय पशु है जिसकी संख्या तेजी से  घटती रही है.


बहुत कम लोगों को पता होगा कि एक  किलो मांस पैदा करने के लिए 5 किलो अनाज को खोना पड़ता  है. इतने मांस उत्पादन के लिए 18,9027 लीटर पानी की आवश्यकता होती है. देरी पशुओं को पालने एवं मांस उत्पादन करने में  खेती करने के मुकाबले 30% स्वच्छ जल की जरुरत  पड़ती है. अगर यही हालात बनी रही तो यूनाइटेड नेशन के चेतावनी  के अनुसार वर्ष 2025 तक भारत के 3400 लाख लोग पानी के मोहताज हो जाएंगे. साथ ही साथ वर्ष 2040 तक भारत में पेयजल की समस्या एक विकराल रूप ले लेगा.  उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार से तकरीबन  30% ग्रीन हाउस गैस प्रतिवर्ष उत्सर्जित होता है जिसका सीधा असर जलवायु परिवर्तन  पर पड़ता है जिसका नतीजा है कि  पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है. जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सभी जीवधारियों आखिर क्यों न पड़े. इतने ही नहीं बल्कि  हर साल 5,300 लाख टन उपजाऊ मिट्टी का विनाश हो रहा है. हालत यह है कि मिट्टी के अंदर जीवांश( कार्बन तत्व या  ह्यूमस) की मात्र  4.5% से घटकर 0.5% हो गयी  है.इसी से मिटटी की उर्वरता बनी रहती है. खेती की उपज घटती जा रही है और प्राप्त अनाज में न  तो पौष्टिकता है और न ही स्वाद.


उपरोक्त सारे  समस्याओं की सिर्फ एक  जड़ है -प्रकृति , मनुष्य  एवं पशु पक्षियों के बीच में जो पारस्परिक सामंजस्य होना चाहिए , वह आज अलग-थलग पड़ गया है. पशु मित्र नहीं एक साधन या मशीन  बन गया है. यही तो फैक्ट्री फार्मिंग जिसने  बड़ी चुनौती खड़ी की है .एक रिपोर्ट के मुताबिक 12,00,000 पशु प्रति घंटे भोजन के लिए मारे जाते हैं. देश में  180 लाख मुर्ग मांस की वार्षिक खपत है.  वर्ष 2014 में 373 लाख गोवंशीय पशुओं को दूध उत्पादन के नाम उपेक्षित एवं निराश्रित पाए गए और जिनकी किस्मत में वधशालाओं में जाने के सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं था. कानूनी पकड़ के लिए जिम्मेदार पांच दशक पुरानी जीव जंतु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 की  वैधानिक कमजोरियां एवं विवशताए पशुओं के ऊपर होने वाले अत्याचार एवं अपराध नियंत्रण दयनीय स्थिति में है. नया संशोधित पशु कल्याण अधिनियम केंद्र सरकार के अरसे से विचाराधीन है. अब ऐसे हालत  में भला अंतरराष्ट्रीय पशुओं के पांच सूत्रीय अधिकार  ( भूख प्यास से मुक्ति , असुविधा से राहत, पीड़ा और दर्द से छुटकारा, सामान्य मनह: स्थिति मैं रहने की आजादी  भय  एवं तनाव से मुक्ति ) देने की कल्पना कैसे की जा सकती है. विश्व भर के सभी देशों में इन पांच सूत्रीय मापदंडों को पशु कल्याण कार्यों की ऊंचाई नापने के लिए प्रयोग किया जा रहा है.


भारत समूचे विश्व में एक अत्यंत गौरवशाली राष्ट्र के रूप में जाना जाता है. खासकर, भारत की संस्कृति, चिंतन- मनन, आदर्श एवं परम्पराएं जिसमें दया और करुणा कूट-कूट कर भरी गई है. भारतीय दर्शन में जीव दया और अहिंसा जैसे माननीय गुणों की चर्चा हमारे पौराणिक कथाओं की एक धरोहर है. भगवान महावीर, बुद्ध , महात्मा गांधी और सम्राट अशोक  के प्रेरक प्रसंग दुनिया भर में विख्यात है. उल्लेखनीय है विश्व का पहला पशु चिकित्सालय 300 ईसा पूर्व की स्थापना सम्राट अशोक ने स्थापित  की थी. उन्होंने पशुओं के उपचार के लिए औषधि पेड़-पौधों की खेती  से लेकर औषध बनाने के कार्यों को बढ़ावा दिया  जिसे  गुप्त साम्राज्य के अन्य राजाओं ने भी आगे बढ़ाया.


वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधीन कार्यरत भारतीय जीव जंतु कल्याण बोर्ड पिछले पांच दशकों से पशुओं के कल्याण , संरक्षण, संवर्धन एवं उनके अधिकारों के प्रति कार्य कर रहा है. इस बोर्ड का प्रमुख कार्य है पशुओं पर होने वाले अत्याचार को रोकना और कल्याणकारी योजनाओं को  देशभर में चलाना, लोगों को जागृत करना, पशु अपराधों का जांच पड़ताल कर उपयोगी नीतियां बनाना और उसे लागू कराना. लेकिन आज स्थिति यह है कि पशु कल्याण का यह लक्ष्य जन सहभागिता अभियान से जुड़ नहीं पा रहा है . पशु अपराध  नियंत्रण तथा पशु कल्याण कार्यक्रमों गति बहुत धीमी है.  देश में  पशु क्रूरता की घटनाएं बढ़ रही है.मुंबई एसपीसीए ,परेल के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2000 में संस्था ने 2,315 क्रूरता की घटनाओं को पंजीकृत किया था जो वर्ष 2016 में बढ़कर 3,357 हो गया. अध्ययन में भी बताया गया कि 2012 में 459 पशु बचाए गए जिनकी संख्या वर्ष  2016 में 1,013 तक पहुंच गयी .


इसका मतलब है की सरकार के वर्तमान कार्यक्रमों एवं नीतियों में आवश्यक सुधार करने की आवश्यकता है. भारत में पशु कल्याण की आवश्यकताओं के अनुसार, खासकर फिल्ड  में काम करने वाले पशु प्रेमियों के जरूरत के अनुसार नीति निर्धारण करने की आवश्यकता है. देश में  पशु कल्याण पर  वैज्ञानिक मानसिकता की आवश्यकता है. लोगों की सोच दया करुणा से ऊपर उठकर मनुष्य, पर्यावरण  और पशु- पक्षियों का  सहसंवंध प्रकृति से बना रहना चाहिए. इस दिशा में देश के पशु चिकित्सक एवं पशु वैज्ञानिक अहम भूमिका निभा सकते हैं.


संदर्भ सूत्र:


1.http://www.hindusthansamachar.in/news/article/story/344470.html